Tuesday, October 7, 2008

ख़बर के पीछे की ख़बर.

शम्स ताहिर ख़ान.... एक ऐसा नाम, जो कम से कम क्राइम रिपोर्टिग के इतिहास मे किसी परिचय का मोहताज नही। जाने कितने ऐसे उदीयमान पत्रकार होगे जिन्होंने टीवी पत्रकारिता और खासकर क्राइम रिपोर्टिंग का सपना ही इसलिये देखा क्योकि उन्होने खान साहब को अपने विशिष्ट अंदाज कभी रिपोर्टिंग करते देखा या फिर एंकरिग। बात चाहे अपराध की ख़बरो में इंसानियत तलाशने की हो चाहे इंसान में छिपे अपराधी को शब्दों मे उकेरने की हो। उनकी कलम ने हमेशा ही कुछ ऐसा तलाश लिया जो दूसरो की सोच से अक्सर दूर होता है। यूं तो शम्स को ब्लॉग लिखने की आदत नही, और उनका मानना है कि ब्लॉग और ब्लॉग लिखनेवाले की भी अपनी एक पहचान होती है और उस पहचान के चलते आप कभी ईमानदारी से अपने विचार लिख नही सकते॥ लेकिन अचानक एक दिन उन्होने एक मेल किया और बताया कि उन्होने ना चाहते हुये भी अपने एक अनुभव को शब्दो मे लिख दिया है जो कोई ब्लॉगर शायद नही करता। मैने उनकी इजाज़त के बाद उस लेख को जस का तस आपके सामने रख दिया है क्योकि शायद मन के असली अनुभवो को भी ब्लॉग पर लाने की ज़रूरत है।
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एक आतंकवादी का घर
सोचा था खुल कर लिखूंगा। पर लिखना शुरू किया तो अचानक ख्याल आया कि आखिर मैं क्यों लिखूं॥और आप क्यों पढ़ें? जबकि मैं जानता हूं कि ना मेरे लिखने से कुछ फर्क पड़ने वाला है और ना आपके पढ़ने से। टेक्नोलोजी के इस दौर मे ना लिख रहा होता, तो लिखता कि मैं स्याही बर्बाद कर रहा हूं और आप बस पलटने के लिए पन्ने पलटते जाइए। पर अब तो कमबख्त स्याही भी खर्च नहीं होती और माउज़ पलटने जैसे पन्ने को पलटने भी नही देता। बस क्लिक कीजिए, स्याही गायब और हरफ़ आंखों से ओझल।बटला हाउस एनकाउंटर के बाद मैं आजमगढ़ गया था। आतंक की ज़मीन तलाशने। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सभी आतंकवादी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा कि शम्स भाई यहां तक तो आ गए पर सराय मीर या सनजरपुर मत जाइए। वहां लोग गुस्से में हैं। दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को कई घंटे तक बंधक बना कर रखा। जाहिर है दिल्ली से जिस मकसद से निकला था उसके इतना नजदीक पहुंच कर उसे अधूरा छोड़ने का सवाल ही नहीं था। सो आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर निकल पड़ा।आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरा तो दुआ-सलाम के बाद एक भाई ने सड़क किनारे अपनी दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को गिलास थमाने के बाद जैसे ही मेरी तरफ बढ़ा तभी दुकान के मालिक तिफलू भाई बोल पड़े--'अरे शम्स भाई को मत देना इनका रोज़ा होगा। क्यों शम्स भाई रोज़े से हैं ना आप?' इतना सुनते ही जांघों पर से उठ कर ग्लास की तरफ बढ़ता मेरा हाथ वापस अपनी जगह पहंच गया।तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था। और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। लिहाजा उन्हें अपने साथ लिए हम सबसे पहले बीना पारा गांव पहुंचे। ये गांव गुजरात बम धमाकों के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले अबू बशर का गांव है। तिफलू भाई ने पहले ही गांव के प्रधान को खबर कर दी थी। इसलिए जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी। कुछ पल बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। बताया गया कि ये बाकर साहब हैं अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। थोड़ी देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद अबू बशर को उसके वालिद के जरिए जितना टटोल सकता था टटोलने लगा। मगर बातचीत के दरम्यान ही तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिसे मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब की पीठ उनकी घऱ की तरफ थी जबकि मेरा मुंह ठीक घर के सदर दरवाजे की तरफ। बातचीत के दौरान अचानक 14-15 साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते ही फौरन दरवाजे को उसी तरह भिड़का कर बंद कर देता है। मैंने मुश्किल से बस पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का मंजर देखा होगा। और बस उसी मंजर ने मुझे घर के अंदर जाने को मजबूर कर दिया। लिहाजा कुछ देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद मैंने इशारे से तिफलू भाई को अलग से बुलाया और अपनी ख्वाहिश जता दी- 'मैं बशर का घर अंदर से देखना चाहता हूं।'फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात ब्लास्ट के मास्टर माइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था। जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईंटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने गुदड़ी जैसा बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव आठ ईंटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईंटों के बीच कुछ साबुत और अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था। घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे में भी देखना चाहते थे पर झिझक भी रहे थे कि कहीं अंदर घर की कोई लड़की ना हो। तिफलू भाई ने झिझक दूर की और कहा कि अंदर आ जाइए क्योंकि घर में सिर्फ अबू बशर की मां ही हैं। कमर या कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल फिर नहीं सकतीं। कमरे में एक उम्रदराज चारपाई पड़ी थी जिसपर एक मटमैली चादर बिछी हुई थी। कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। हमें ये भी बताया गया कि घर में खाना बशर के दोनों छोटे भाई ही बनाते हैं इसके बाद हम घर से बाहर निकल आते हैं। बाहर निकलते-निकलते तिफलू भाई हमें बशर के घर के सदर दरवाजे पर लगा नीले रंग का एक निशान दिखाते हैं। ये निशान सरकार की तरफ से गांव के उन घरों के बाहर लगाया जाता है जो गरीबी की रेखा से नीचे होते हैं।इसके बाद मैं और भी तमाम लोगों से मिला, बातें कीं.....पर ना मालूम क्यों अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा?

Saturday, October 4, 2008

सादी वर्दी में भिखारी.

भिखारी।। शब्द सुनते ही आपके दिमाग मे भी एक ऐसा चेहरा ख्याल मे आता होगा जो दिखने दुनिया का सबसे सताया लाचार इंसान हो। मेरा भी ख्याल आपसे कुछ ज्यादा ज़ुदा नही है लेकिन फ़र्क बस इतना है कि मै कुछ ऐसे भिखारियों को भी जानता हूं जो दिखने मे भले ही आम भिखारियो की तरह लाचार परेशान ना दिखते हो। लेकिन हकरते बिल्कुल असली भिखारियो जैसी होती है। या यूं कहे उनसे भी ज़्यादा शातिर। एक अचूक वार.. और आप चारो खाने चित। यानि इंन्कार की कोई गुंजाईश ही नही। आप चाहकर भी उनकी भीख़ को टाल नही सकते और कमाल ये कि आपको वो ये एहसास भी नही होने देंगे कि वो कोई भीख़ मांग रहे हें। ऐसे लोग आपको सादे वेश मे हर तरफ मिल जायेगें. आपके पड़ोस मे, मोहल्ले मे, ऑफिस मे, बाजार मे, हर जगह। बस नज़र भर गौर से देखिये और आपको आसपास की दुनिया पटी हुयी मिलेगी ऐसे भिखारियो की जमात से। हमारे बिन्नू भाई का साबका ऐसे ही एक मल्टीपर्पज़ भीखू से रोज होता है। बिन्नू भाई को अख़बार पढने की जबरदस्त आदत है.. जो उनके हिसाब से अब बीमारी के पायदान तक पहुंच गयी है। सुबह उठते ही सबसे पहले आँखे मलते हुये वो सीधे दरवाजे की तरफ भागते है न्यूज़ पेपर उठाने के लिये.. लेकिन तमाम कोशिशों के बावज़ूद वो हफ्ते मे चार दिन तो लेट हो ही जाते है। उनसे पहले ही सामने के फ्लैटवाले शर्मा जी अख़बार का या रसास्वादन करने मे मशगूल होते है। या फिर नये नवेले अख़बार की परदे कुरेद चुके होते हैं। माने बिन्नू भाई के हिस्से में हर रोज़ जूठा अख़बार आता है। ऐसा नही कि बिन्न् भाई ने कोशिश नही की लेकिन सारी कोशिशे बेकार.. लिहाजा एक बार उन्होने साफ-साफ कह दिया कि शर्माजी मुझे दिक्कत होती है अगर आप चाहे तो मै आपके लिये भी दैनिक जागरण की एक एक्सट्रा कॉपी मंगा सकता हूं लेकिन शर्मा जी तो जैसे बेहआई के लिये तैयार बैठे थे बेहद बेशर्मी से हंस के बोले अच्छा बिन्नू भाई शुक्रिया लेकिन दैनिक क्यो मंगवायेगे जब पैसे आपको ही देने हैं तो कोई और मंगवाईये न.... दैनिक तो मैं आपका पढ़ ही लेता हूं।
बिन्नू भाई का दिल किया कि यहीं पर उनका खून कर दें लेकिन खून करने की बज़ाय वो खून का घूँट पी कर रह गये। और कोई चारा भी नही था। शर्मा जी गांववाले मौसा जी की छोटी बेटी के चचेरे ससुर भी लगते थे। कहीं जरा सी बात का बतंगड़ ना बन जाये।
ऐसे ही हमारे घर के नीचे वर्मा जी रहते है उनकी पत्नी अक्सर शाम को घर आ जाती है... बिना वज़ह के .. इधर उधर की बातो के बाद सीधे किचन में जाना उनका उद्देश्य रहता है। फिर किचन की हर चीज को बड़े खास अंदाज मे चेक करती है और खाने में जो सबसे मुफ़ीद सामान उनको लगेगा उसको देखते ही उनके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आती है और .. फिर आय हाय ... आपके यहां तो रोज़ ही कुछ ऐसा बनता है कि अपने आपको रोक ही नही पाती .... ये भी ना राजू के पापा को तो तमीज़ ही नही है रोज वही आलू-टमाटर ला के रख देते है। भई मुझसे नही रहा जाता कोई और होता तो सकुचाती भी अब आप तो अपनी ही हैं भाभी जी आपसे कहने मे कैसी शर्म? भई अपने लिये तो मै आज भी एक कटोरी सब्जी लेके ही जाउंगी।... इससे पहले कोई उनकी चंचल, चपल, चटोरी जीभ को रोक सके उनकी कटोरी मे आधी सब्जी आ चुकती है। अब मेरे घर मे कम से कम सब्जी तो उनको भी शामिल मानकर ही बनाई जाती है ताकि हमे तो ना भूखा सोना पड़े।
अब आप शायद मेरा दर्द समझ गये होगें और आपको भी अचानक ऐसे पड़ोसी, जानकार याद आने लगे होगे जो मेरे इन 'सेमी परजीवीयियों' से मेल खाते होगें। हां हो सकता हो इनसे बचने का कोई नुस्खा आपको पता हो तो मुझे भी बताईयेगा प्लीज़।।

Friday, September 26, 2008

बाटला हाउस- पुलिस की चुप्पी और विचारो के पंख

नोएड़ा के आरूषी-हेमराज के कत्ल के बाद, हाल के दिनो में इससे ज्यादा बहस का विषय शायद ही कोई दूसरा रहा होगा। यूं तो आतंकवादियो के एनकाउंटर कोई राष्ट्रीय बहस का मुद्दा नही हो सकते लेकिन ताजा मामला शायद कुछ अलग है। दिल्ली मे ज़ामिया नगर के बाटला हाउस का एनकाउंटर हर तरफ चर्चा में है। वज़ह चाहे जो भी हो लेकिन इस बहस के बीच ये बात ज़रूर सोचने वाली है कि अब शायद लोगो की समझ इतनी बढ़ गयी है कि वो कोई भी बड़ी बात ऐसे ही हज़म नही करनेवाले.. या साफ शब्दो में यूं भी कह सकते हैं कि लोग यकीन करना चाहते है कि ये एनकाउंटर वाकई में फर्जी नही था। अब सिर्फ पुलिस के कह देने मात्र से लोग मानने को तैयार नही कि उन्होंने जो भी किया वो शीशे की तरह साफ था।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल में पत्रकार होने के नाते मैने इस ख़बर को कवर भी किया और लोगो की अलग- अलग प्रतिक्रियायें भी देखी सुनी। ज्यादातर लोगो के कहने का जो भी भी मतलब था उसका कोई पुख्ता आधार नही था फिर भी उनके लहज़े से इतना साफ समझा जा सकता था कि बात अब आगे तक जा सकती है। किसी भी ओर... आपसी बहस और वाक्-युद्ध से लेकर भविष्य के गम्भीर परिणामों तक। लिहाजा अब ये भी समझना ज़रूरी हो गया कि आखिर लोगो की इस सोच के पीछे की वज़ह क्या है।

दिल्ली के जामियानगर में उस दिन जो भी हुआ वो कई सवाल उठाता है.। सबसे बड़ा सवाल पुलिस के उस तरीके पर ही है जिस तरीके से उन्होंने एनकाउंटर को अंज़ाम दिया। इतनी घनी बस्ती मे बगैर पूरी तरह से लैस हुये और पुख्ता रणनीति के बिना जाना अपने आप में अजीब बात है साथ ही साथ ये भी दिखाता है कि पुलिस को खुद भी अंदेशा नही था कि उनपर इतना घातक पलटवार हो सकता है। उन्हे लगा कि 20-22 साल के नये लड़को को तो वो यूं ही दबोच लेंगे। लेकिन दिल्ली पुलिस के होनहार अफसर मोहन चंद शर्मा शायद यहां चूक गये और इसका खामियाजा उन्हे अपनी जान देकर कर चुकाना पड़ा। यहां कहा ये भी जा रहा है कि आतंकवादियों की गोली से नही बल्कि अंदाजे के विपरीत L-18 मकान में मौजूद लड़को के हमलावर हो जाने की वज़ह से हड़बड़ी मे किसी पुलिसवाले की लापरवाही से चली गोली ने ही शर्मा को घायल कर दिया और बाद मे उन्हें बचाया नही जा सका। ये तो जांच का विषय हो सकता है लेकिन इसके बावजूद इतना तो तय है कि शर्मा एक होनहार और क़ाबिल अफ़सर थे जिसपर कोई संदेह नही किया जा सकता। निसंदेह वो शहीद ही हुये है। चाहे वो गोली किसी ने भी चलाई हो।

अब भला जिस दिल्ली पुलिस ने इतने बड़े ऑपरेशन मे अपने एक काबिल अफ़सर को खो दिया उस पुलिस पर लोगो को शक क्यो हो रहा है। ऐसे मामले मे तो पुलिस को सिर्फ और सिर्फ शाबासी ही मिलनी चाहिये थी। ये गम्भीर बात है। मै ये नही कह सकता कि एनकाउंटर सही था फर्जी लेकिन इतना तो शर्तिया कह सकता हूं कि पूरे मामले मे पुलिस से जो गलतिया हुयी है वो मामले को साफ करने मे नाकाम ज़रूर रही है।

पुलिस के आला अफसरो ने एनकाउंटर के बाद जिस तरह से आनन-फानन प्रेस कान्फ्रेंस करके पूरे मामले मे सारे लड़कों के बारे मे बताया उसमे एक बात सोचनेवाली थी कि भला कैसे इतने खूंखार आतंकवादी पुलिस के सामने इतनी जल्दी अपना मुंह खोल सकते है। खैर ये पुलिस की दूसरी गलती थी जो उनके काम करने के तरीके पर सवाल उठाती है।

पुलिस ने बाटला हाउस मे रह रहे तेरह लड़को को इंड़ियन मुजाहिदीन का सबसे खतरनाक माड्यूल बता दिया लेकिन उन्होने वो ये विचार करना भूल गये कि जिस जनता को ये बात समझाना चाह रहे थे वो इतनी बड़ी बात बगैर किसी पुख्ता सबूत के कैसे य़कीन कर लेगी। यानि कम से कम उन्हे लड़को के इतने बड़े आतंकी होने के प्रमाण तो देने ही चाहिये थे।

ऐसा ना करने पर पुलिस की थ्योरी के बारे मे लोगों ने क्या सोचा ये भी जान लीजिये। लोगो की नज़र मे मामला एकदम सपाट है। पुलिस को L-18 कुछ बदमाशो के होने की सूचना थी। उन्हे पकड़ने के लिये पुलिस ने एक टीम ली और अचानक एक घर मे घुस गये जिसमे बदमाशो के होने का शक था। बदमाशो ने पलटवार किया। बदमाशो की गोली से या फिर पुलिस की ही गोली से उनका एक अधिकारी मारा गया लिहाजा गुस्से में पुलिस ने पूरी बिल्ड़िग मे रह रहे लोगो को गोलियां बरसाकर नेस्तनांबूद कर दिया और बाकियों को आतंकी बताकर उन्हें धर दबोचा और जो मन में आया उनके बारे मे बोल दिया...... लेकिन जनता जानना चाहती है कि भईया सबूत कहां है। अब पुलिस इस पर अजीब जवाब देती है। जितना लोग शक कर रहे है पुलिस उतना ही मामले पर रहस्यमयी ढंग से चुप्पी साधे जा रही है। अब जब तक पुलिस की ओर से सबूत के साथ बात सामने नही आती तो लोग तो सोचेंगे ही अपने हिसाब से लिहाजा लोगो के विचारो के पंख लग गये और हर तरफ सैकड़ो किस्से हवा में तैर रहे है। और ये उड़ान तब तक चलती रहेगी जब तक पुलिस बेहद सटीक जवाबों के साथ सबके सामने आकर समझाती नही कि आखिर उस दिन बटला हाउस के मकान मे हुआ क्या था। और अगर ऐसा नही हुआ तो यकीन मानिये ये एनकाउंटर नोएड़ा के आऱूषी-हेमराज के कत्ल की तरह ही रहस्यमयी रहेगी जिसमे पुलिस और सीबीआई ने भले ही पिता को बेकसूर बता दिया हो लेकिन लोगो के ज़ेहन मे अभी तक ये बात साफ नही हो पायी कि आखिर सच क्या है।

Monday, July 28, 2008

बिकाऊ ख़बर

रिपोर्टर साहब आज फिर परेशान हैं.. लाख कोशिशों और दलीलों के बाद भी उनकी ख़बर प्राइम टाइम से गिरा दी गयी हैं। वज़ह आउटपुट के तमाम धुरंधरों को उनकी ख़बर में आज भी कोई न्यूज मैटेरियल नही दिख रहा। जबकि रिपोर्टर साहब आज सुबह से ही पूरे इत्मिनान से थे कि उनकी ख़बर तो आज छा जायेगी। उनकी ये इत्मिनानी दोपहर तक उनके ज़ेहन और दिमाग पर छायी रही.... लेकिन दोपहर की मीटिंग के बाद उनका हवाई किला सीले हुये पटाखे की तरह फुस्स हो गया। जितने सपने थे सब एक बार फिर से बिखर चुके थे। उन्हे रह-रह कर सुबह का वो द्रश्य याद आ रहा था। अभी वो घर से आफिस निकलने के लिये अपनी स्कूटर स्टार्ट कर ही रहे थे कि पडोस के बिन्नू भाई मिल गये ( बिन्नू भाई मोहल्ले के लोकल अख़बार है और सबकी खबर रखना उनका प्रिय शगल है या यूं कहे ये उनका अवैतनिक पेशा है.. बाकी फुरसत में दूसरे काम भी करते है, उनकी खुफिया खबरों की वज़ह से कई बार मोहल्ले में ग्रहयुद्ध जैसी नौबत आ चुकी है) खैर सुबह निकलते वक्त उनकी खबरिया नमस्कार का जवाब देते वक्त उन्हे भी रिपोर्टर साहब ने अपनी स्टाइल में बता ही दिया था...आज तो बस कमाल ही है। रात नौ बजे चैनल देख लीजियेगा। हंगामा मच जायेगा ऐसी ख़बर है कि भूचाल आ जायेगा। आहह.. ये सब कहते वक्त उनके चेहरे पर जो आत्ममुग्ध मुस्कान थी वो बिन्नू भाई की पारखी नज़र भी भांप गयी होगी और पहली फुरसत में ही उन्होनें कम से कम इस ख़बर की सौ पचास कॉपिया तो बांट ही दी होगी। ये सोचकर- सोचकर रिपोर्टर साहब का कलेजा बैठा जा रहा था। अब कैसे घर वापस जाते वक्त मुहल्ले के उन मसखरों से मुंह छुपायेगे जो उन्हे देखते ही पहले से उनकी नकल उतारने लगते है।
मुझसे उनकी ये हालत देखी नही जा रही थी लेकिन उन्हे दिलासा देने का तरीका भी नही समझ में आ ऱहा था। दरअसल मै भी अचंम्भे मे था कि आखिर इतनी बडी खबर कैसे अंडर प्ले की जा सकती है.. फिर मैने पूछा कि भाई आपने किसको बताया था ख़बर के बारे मे... रिपोर्टर साहव थोडा टालने के अंदाज मे बताने लगे.. अमां छोडो भाई खबरों की तो समझ ही नही है किसी को... बस राखी सांवंत को नचा लो इनसे... फिर भी बताओ तो सही.. मैने इसरार किया। तनिक जोर देने पर ही उनके सब्र का बांध टूट गया.. बताने लगे शहर में म्युनसिपिलिटी स्कूल के चार बच्चे भूख से मर गये... मैने पूछा इसमे स्कूल का क्या रोल है। अरे महंगाई के चलते स्कूल में मिलनेवाला मिड डे मील ही उनकी भूख का इंतजाम करता था लेकिन इस बार नये मास्टर से मिली भगत करके सप्लायर ने सारा मिड डे मील पहले ही ब्लैक कर दिया था। लिहाजा मास्टर जी ने पिछले चार दिन से खाना बच्चो में बंटवाया ही नही ऊपर से धमकाते रहे कि बच्चे अपना मुंह बंद रखे। बडे तो भूख सह गये लेकिन क्लास के चार छोटे बच्चे जिनकी उम्र सबसे कम थी नही सह पाये। सप्लायर के साथ मास्टर की सारी करतूत की वीडियो रिकार्डिंग भी है मेरे पास लेकिन कहते है मामला डाउन मार्केट है। प्रेशर है.. टीआरपी नही आयेगी.. ए़डिट करा लो आखिरी बुलेटिन में चलवा देंगे।
सारा माज़रा मेरी समझ में आ गया था.. साहब को टीवी में आये हुये तो चार साल हो गये लेकिन अभी सोच अपने गांव की ही रखते है। गलती बॉस की भी नही उन्हे भी रिजल्ट देना है.. भावनाओ में बहे तो वापसी का टिकट भी उधारी से खरीद के जाना होगा । मैने उनके कान मे खबर बेचने का एक जोरदार तरीका बताया..थोडी देर ना नुकूर के बाद ही उन्हे समझ आ गया था कि या तो मेरे तरीके पर अमल करें या फिर आज फिर अपने स्कूटर की बत्ती बुझा कर अपने मुहल्ले की गली मे चोरो की तरह जाये।
खैर उसूलों पर मजबूरी भारी पडी या बिन्नू भाई के बंट चुके अख़बारों का ख़ौफ़ ज्यादा था.. या फिर कुछ और... कुछ देर बाद रिपोर्टर साहब लाइब्रेरी मे शहर के टॉप स्कूलों के बिज्युवल्स निकाल रहे थे और साथ में ये भी ध्यान दे रहे थे कि सामने दिखनेवाले बच्चे चेहरे से थोडे अमीर घरो के हो। इसके बाद मुझे बस इतना याद है कि वो एक फिर सीना तान के आफिस में इधर घूम रहे थे... लगता है फार्मूला काम कर गया था। जैसे ही घडी ने नौ बजाये..रिपोर्टर साब की धडकने तेज हो गयी ... ख़बर देखकर एकबारगी लगा कि कोई और ही ख़बर चल रही है लेकिन मेरी मुस्कुराहट ने उनकी धडकनों की स्पीड को कंन्ट्रोल किया और उन्हे भरोसा हो गया कि ये वही ख़बर है जो थोडी देर पहले कूडा समझ के गिरा दी गयी थी। मामला हाई प्रोफाइल हो गया था।
भावातिरेक मे उनके हाथ अचानक अपने चेहरे पर चले गये.. महसूस हुआ कि खबर बिकने की खुशी में उनकी आँखो से अश्रुधारा बह निकली है। उन्होंने बेहद शुक्रियाई नज़रों से मेरी तरफ देखा। मै समझ कल भी लंच भाई ही करायेगा। इसी बीच आँफिस के किसी कोनें से आवाज आयी.... अबे बेंच दी ख़बर।।।

Wednesday, July 23, 2008

आँलपिन के बारे में...

कुछ अजीब सा नाम है... आँलपिन.. आप ज़रूर सोच रहे होंगें कि कितना चुभता सा शब्द है.. लेकिन ज़रा सोच कर देखिये इसका बड़ा ही गूढ़ अर्थ है...आँलपिन यानि जो सब चीजो को संजो के रखे। बेशक ये चुभती है.. लेकिन तमाम बिखरी चीजों को एकजुट भी करती है। अगर आँलपिन के चुभने से दर्द होता है तो आँलपिन से किसी कांटे का दर्द भी दूर होता है.. बस थोड़ा इस्तेमाल का फ़र्क है.. थोड़ा नज़रिये का.. मेरा ये ब्लॉग इसी फ़र्क की दास्तान है...