Tuesday, October 7, 2008

ख़बर के पीछे की ख़बर.

शम्स ताहिर ख़ान.... एक ऐसा नाम, जो कम से कम क्राइम रिपोर्टिग के इतिहास मे किसी परिचय का मोहताज नही। जाने कितने ऐसे उदीयमान पत्रकार होगे जिन्होंने टीवी पत्रकारिता और खासकर क्राइम रिपोर्टिंग का सपना ही इसलिये देखा क्योकि उन्होने खान साहब को अपने विशिष्ट अंदाज कभी रिपोर्टिंग करते देखा या फिर एंकरिग। बात चाहे अपराध की ख़बरो में इंसानियत तलाशने की हो चाहे इंसान में छिपे अपराधी को शब्दों मे उकेरने की हो। उनकी कलम ने हमेशा ही कुछ ऐसा तलाश लिया जो दूसरो की सोच से अक्सर दूर होता है। यूं तो शम्स को ब्लॉग लिखने की आदत नही, और उनका मानना है कि ब्लॉग और ब्लॉग लिखनेवाले की भी अपनी एक पहचान होती है और उस पहचान के चलते आप कभी ईमानदारी से अपने विचार लिख नही सकते॥ लेकिन अचानक एक दिन उन्होने एक मेल किया और बताया कि उन्होने ना चाहते हुये भी अपने एक अनुभव को शब्दो मे लिख दिया है जो कोई ब्लॉगर शायद नही करता। मैने उनकी इजाज़त के बाद उस लेख को जस का तस आपके सामने रख दिया है क्योकि शायद मन के असली अनुभवो को भी ब्लॉग पर लाने की ज़रूरत है।
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एक आतंकवादी का घर
सोचा था खुल कर लिखूंगा। पर लिखना शुरू किया तो अचानक ख्याल आया कि आखिर मैं क्यों लिखूं॥और आप क्यों पढ़ें? जबकि मैं जानता हूं कि ना मेरे लिखने से कुछ फर्क पड़ने वाला है और ना आपके पढ़ने से। टेक्नोलोजी के इस दौर मे ना लिख रहा होता, तो लिखता कि मैं स्याही बर्बाद कर रहा हूं और आप बस पलटने के लिए पन्ने पलटते जाइए। पर अब तो कमबख्त स्याही भी खर्च नहीं होती और माउज़ पलटने जैसे पन्ने को पलटने भी नही देता। बस क्लिक कीजिए, स्याही गायब और हरफ़ आंखों से ओझल।बटला हाउस एनकाउंटर के बाद मैं आजमगढ़ गया था। आतंक की ज़मीन तलाशने। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सभी आतंकवादी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा कि शम्स भाई यहां तक तो आ गए पर सराय मीर या सनजरपुर मत जाइए। वहां लोग गुस्से में हैं। दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को कई घंटे तक बंधक बना कर रखा। जाहिर है दिल्ली से जिस मकसद से निकला था उसके इतना नजदीक पहुंच कर उसे अधूरा छोड़ने का सवाल ही नहीं था। सो आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर निकल पड़ा।आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरा तो दुआ-सलाम के बाद एक भाई ने सड़क किनारे अपनी दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को गिलास थमाने के बाद जैसे ही मेरी तरफ बढ़ा तभी दुकान के मालिक तिफलू भाई बोल पड़े--'अरे शम्स भाई को मत देना इनका रोज़ा होगा। क्यों शम्स भाई रोज़े से हैं ना आप?' इतना सुनते ही जांघों पर से उठ कर ग्लास की तरफ बढ़ता मेरा हाथ वापस अपनी जगह पहंच गया।तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था। और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। लिहाजा उन्हें अपने साथ लिए हम सबसे पहले बीना पारा गांव पहुंचे। ये गांव गुजरात बम धमाकों के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले अबू बशर का गांव है। तिफलू भाई ने पहले ही गांव के प्रधान को खबर कर दी थी। इसलिए जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी। कुछ पल बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। बताया गया कि ये बाकर साहब हैं अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। थोड़ी देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद अबू बशर को उसके वालिद के जरिए जितना टटोल सकता था टटोलने लगा। मगर बातचीत के दरम्यान ही तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिसे मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब की पीठ उनकी घऱ की तरफ थी जबकि मेरा मुंह ठीक घर के सदर दरवाजे की तरफ। बातचीत के दौरान अचानक 14-15 साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते ही फौरन दरवाजे को उसी तरह भिड़का कर बंद कर देता है। मैंने मुश्किल से बस पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का मंजर देखा होगा। और बस उसी मंजर ने मुझे घर के अंदर जाने को मजबूर कर दिया। लिहाजा कुछ देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद मैंने इशारे से तिफलू भाई को अलग से बुलाया और अपनी ख्वाहिश जता दी- 'मैं बशर का घर अंदर से देखना चाहता हूं।'फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात ब्लास्ट के मास्टर माइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था। जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईंटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने गुदड़ी जैसा बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव आठ ईंटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईंटों के बीच कुछ साबुत और अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था। घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे में भी देखना चाहते थे पर झिझक भी रहे थे कि कहीं अंदर घर की कोई लड़की ना हो। तिफलू भाई ने झिझक दूर की और कहा कि अंदर आ जाइए क्योंकि घर में सिर्फ अबू बशर की मां ही हैं। कमर या कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल फिर नहीं सकतीं। कमरे में एक उम्रदराज चारपाई पड़ी थी जिसपर एक मटमैली चादर बिछी हुई थी। कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। हमें ये भी बताया गया कि घर में खाना बशर के दोनों छोटे भाई ही बनाते हैं इसके बाद हम घर से बाहर निकल आते हैं। बाहर निकलते-निकलते तिफलू भाई हमें बशर के घर के सदर दरवाजे पर लगा नीले रंग का एक निशान दिखाते हैं। ये निशान सरकार की तरफ से गांव के उन घरों के बाहर लगाया जाता है जो गरीबी की रेखा से नीचे होते हैं।इसके बाद मैं और भी तमाम लोगों से मिला, बातें कीं.....पर ना मालूम क्यों अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा?

Saturday, October 4, 2008

सादी वर्दी में भिखारी.

भिखारी।। शब्द सुनते ही आपके दिमाग मे भी एक ऐसा चेहरा ख्याल मे आता होगा जो दिखने दुनिया का सबसे सताया लाचार इंसान हो। मेरा भी ख्याल आपसे कुछ ज्यादा ज़ुदा नही है लेकिन फ़र्क बस इतना है कि मै कुछ ऐसे भिखारियों को भी जानता हूं जो दिखने मे भले ही आम भिखारियो की तरह लाचार परेशान ना दिखते हो। लेकिन हकरते बिल्कुल असली भिखारियो जैसी होती है। या यूं कहे उनसे भी ज़्यादा शातिर। एक अचूक वार.. और आप चारो खाने चित। यानि इंन्कार की कोई गुंजाईश ही नही। आप चाहकर भी उनकी भीख़ को टाल नही सकते और कमाल ये कि आपको वो ये एहसास भी नही होने देंगे कि वो कोई भीख़ मांग रहे हें। ऐसे लोग आपको सादे वेश मे हर तरफ मिल जायेगें. आपके पड़ोस मे, मोहल्ले मे, ऑफिस मे, बाजार मे, हर जगह। बस नज़र भर गौर से देखिये और आपको आसपास की दुनिया पटी हुयी मिलेगी ऐसे भिखारियो की जमात से। हमारे बिन्नू भाई का साबका ऐसे ही एक मल्टीपर्पज़ भीखू से रोज होता है। बिन्नू भाई को अख़बार पढने की जबरदस्त आदत है.. जो उनके हिसाब से अब बीमारी के पायदान तक पहुंच गयी है। सुबह उठते ही सबसे पहले आँखे मलते हुये वो सीधे दरवाजे की तरफ भागते है न्यूज़ पेपर उठाने के लिये.. लेकिन तमाम कोशिशों के बावज़ूद वो हफ्ते मे चार दिन तो लेट हो ही जाते है। उनसे पहले ही सामने के फ्लैटवाले शर्मा जी अख़बार का या रसास्वादन करने मे मशगूल होते है। या फिर नये नवेले अख़बार की परदे कुरेद चुके होते हैं। माने बिन्नू भाई के हिस्से में हर रोज़ जूठा अख़बार आता है। ऐसा नही कि बिन्न् भाई ने कोशिश नही की लेकिन सारी कोशिशे बेकार.. लिहाजा एक बार उन्होने साफ-साफ कह दिया कि शर्माजी मुझे दिक्कत होती है अगर आप चाहे तो मै आपके लिये भी दैनिक जागरण की एक एक्सट्रा कॉपी मंगा सकता हूं लेकिन शर्मा जी तो जैसे बेहआई के लिये तैयार बैठे थे बेहद बेशर्मी से हंस के बोले अच्छा बिन्नू भाई शुक्रिया लेकिन दैनिक क्यो मंगवायेगे जब पैसे आपको ही देने हैं तो कोई और मंगवाईये न.... दैनिक तो मैं आपका पढ़ ही लेता हूं।
बिन्नू भाई का दिल किया कि यहीं पर उनका खून कर दें लेकिन खून करने की बज़ाय वो खून का घूँट पी कर रह गये। और कोई चारा भी नही था। शर्मा जी गांववाले मौसा जी की छोटी बेटी के चचेरे ससुर भी लगते थे। कहीं जरा सी बात का बतंगड़ ना बन जाये।
ऐसे ही हमारे घर के नीचे वर्मा जी रहते है उनकी पत्नी अक्सर शाम को घर आ जाती है... बिना वज़ह के .. इधर उधर की बातो के बाद सीधे किचन में जाना उनका उद्देश्य रहता है। फिर किचन की हर चीज को बड़े खास अंदाज मे चेक करती है और खाने में जो सबसे मुफ़ीद सामान उनको लगेगा उसको देखते ही उनके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आती है और .. फिर आय हाय ... आपके यहां तो रोज़ ही कुछ ऐसा बनता है कि अपने आपको रोक ही नही पाती .... ये भी ना राजू के पापा को तो तमीज़ ही नही है रोज वही आलू-टमाटर ला के रख देते है। भई मुझसे नही रहा जाता कोई और होता तो सकुचाती भी अब आप तो अपनी ही हैं भाभी जी आपसे कहने मे कैसी शर्म? भई अपने लिये तो मै आज भी एक कटोरी सब्जी लेके ही जाउंगी।... इससे पहले कोई उनकी चंचल, चपल, चटोरी जीभ को रोक सके उनकी कटोरी मे आधी सब्जी आ चुकती है। अब मेरे घर मे कम से कम सब्जी तो उनको भी शामिल मानकर ही बनाई जाती है ताकि हमे तो ना भूखा सोना पड़े।
अब आप शायद मेरा दर्द समझ गये होगें और आपको भी अचानक ऐसे पड़ोसी, जानकार याद आने लगे होगे जो मेरे इन 'सेमी परजीवीयियों' से मेल खाते होगें। हां हो सकता हो इनसे बचने का कोई नुस्खा आपको पता हो तो मुझे भी बताईयेगा प्लीज़।।