Saturday, October 4, 2008

सादी वर्दी में भिखारी.

भिखारी।। शब्द सुनते ही आपके दिमाग मे भी एक ऐसा चेहरा ख्याल मे आता होगा जो दिखने दुनिया का सबसे सताया लाचार इंसान हो। मेरा भी ख्याल आपसे कुछ ज्यादा ज़ुदा नही है लेकिन फ़र्क बस इतना है कि मै कुछ ऐसे भिखारियों को भी जानता हूं जो दिखने मे भले ही आम भिखारियो की तरह लाचार परेशान ना दिखते हो। लेकिन हकरते बिल्कुल असली भिखारियो जैसी होती है। या यूं कहे उनसे भी ज़्यादा शातिर। एक अचूक वार.. और आप चारो खाने चित। यानि इंन्कार की कोई गुंजाईश ही नही। आप चाहकर भी उनकी भीख़ को टाल नही सकते और कमाल ये कि आपको वो ये एहसास भी नही होने देंगे कि वो कोई भीख़ मांग रहे हें। ऐसे लोग आपको सादे वेश मे हर तरफ मिल जायेगें. आपके पड़ोस मे, मोहल्ले मे, ऑफिस मे, बाजार मे, हर जगह। बस नज़र भर गौर से देखिये और आपको आसपास की दुनिया पटी हुयी मिलेगी ऐसे भिखारियो की जमात से। हमारे बिन्नू भाई का साबका ऐसे ही एक मल्टीपर्पज़ भीखू से रोज होता है। बिन्नू भाई को अख़बार पढने की जबरदस्त आदत है.. जो उनके हिसाब से अब बीमारी के पायदान तक पहुंच गयी है। सुबह उठते ही सबसे पहले आँखे मलते हुये वो सीधे दरवाजे की तरफ भागते है न्यूज़ पेपर उठाने के लिये.. लेकिन तमाम कोशिशों के बावज़ूद वो हफ्ते मे चार दिन तो लेट हो ही जाते है। उनसे पहले ही सामने के फ्लैटवाले शर्मा जी अख़बार का या रसास्वादन करने मे मशगूल होते है। या फिर नये नवेले अख़बार की परदे कुरेद चुके होते हैं। माने बिन्नू भाई के हिस्से में हर रोज़ जूठा अख़बार आता है। ऐसा नही कि बिन्न् भाई ने कोशिश नही की लेकिन सारी कोशिशे बेकार.. लिहाजा एक बार उन्होने साफ-साफ कह दिया कि शर्माजी मुझे दिक्कत होती है अगर आप चाहे तो मै आपके लिये भी दैनिक जागरण की एक एक्सट्रा कॉपी मंगा सकता हूं लेकिन शर्मा जी तो जैसे बेहआई के लिये तैयार बैठे थे बेहद बेशर्मी से हंस के बोले अच्छा बिन्नू भाई शुक्रिया लेकिन दैनिक क्यो मंगवायेगे जब पैसे आपको ही देने हैं तो कोई और मंगवाईये न.... दैनिक तो मैं आपका पढ़ ही लेता हूं।
बिन्नू भाई का दिल किया कि यहीं पर उनका खून कर दें लेकिन खून करने की बज़ाय वो खून का घूँट पी कर रह गये। और कोई चारा भी नही था। शर्मा जी गांववाले मौसा जी की छोटी बेटी के चचेरे ससुर भी लगते थे। कहीं जरा सी बात का बतंगड़ ना बन जाये।
ऐसे ही हमारे घर के नीचे वर्मा जी रहते है उनकी पत्नी अक्सर शाम को घर आ जाती है... बिना वज़ह के .. इधर उधर की बातो के बाद सीधे किचन में जाना उनका उद्देश्य रहता है। फिर किचन की हर चीज को बड़े खास अंदाज मे चेक करती है और खाने में जो सबसे मुफ़ीद सामान उनको लगेगा उसको देखते ही उनके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आती है और .. फिर आय हाय ... आपके यहां तो रोज़ ही कुछ ऐसा बनता है कि अपने आपको रोक ही नही पाती .... ये भी ना राजू के पापा को तो तमीज़ ही नही है रोज वही आलू-टमाटर ला के रख देते है। भई मुझसे नही रहा जाता कोई और होता तो सकुचाती भी अब आप तो अपनी ही हैं भाभी जी आपसे कहने मे कैसी शर्म? भई अपने लिये तो मै आज भी एक कटोरी सब्जी लेके ही जाउंगी।... इससे पहले कोई उनकी चंचल, चपल, चटोरी जीभ को रोक सके उनकी कटोरी मे आधी सब्जी आ चुकती है। अब मेरे घर मे कम से कम सब्जी तो उनको भी शामिल मानकर ही बनाई जाती है ताकि हमे तो ना भूखा सोना पड़े।
अब आप शायद मेरा दर्द समझ गये होगें और आपको भी अचानक ऐसे पड़ोसी, जानकार याद आने लगे होगे जो मेरे इन 'सेमी परजीवीयियों' से मेल खाते होगें। हां हो सकता हो इनसे बचने का कोई नुस्खा आपको पता हो तो मुझे भी बताईयेगा प्लीज़।।

4 comments:

manvinder bhimber said...

koi nuskha nahi hai....

ab inconvenienti said...

rudely मना नहीं कर सकते तो जल्द से जल्द मकान बदलने की सोचो...... वरना इनका असर तुम्हारी लाइफ पर पड़ना शुरू हो जाएगा. आगे भगवान की दया.

Udan Tashtari said...

आपका दर्द समझ रहा हूँ..कभी देखा भी है, सहा भी है. मगर समय रहते उनके पतिदेव का ट्रांसफर हो गया तो जान छूटी.

Nitish Raj said...

बिन्नू भाई का दिल किया कि यहीं पर उनका खून कर दें लेकिन खून करने की बज़ाय वो खून का घूँट पी कर रह गये। और कोई चारा भी नही था।
ये अच्छी लाइन लगी। और इनसे बचने का कोई उपाय है तो जब अपनी मंडली सजती है तब पूछना तो तब बताएंगे।